ये कैसी नासमझी थी, बरस बीतते गये, कभी ज्ञान का छाया नही मिला था, हम धुनते रहे जिसे, इस इश्क की साहत में, दुख से ज्यादा अंत मे कुसभी तो ना मिला, ऐ इश्क करने बालों क्या अभीतक एहसास हो पाया, पाकर भी किसीको पा ना सकोगे, जब तुम खुद से हो बेखबर ! लेकिन तुम मुझे शायद ऐसे ही कहोगे -
क्या जरूरत है, इस खुद में, तुम्हारे भीतर क्या है, सारा सार तो बाहर है, जीबन की क्या बात बोलते हो, क्या जरूरत है, समय कहा है, फिजूल ही है, कुश जबाब नही है, सोर दे येसब, बेकार है तुम्हारे ये चेष्ठा ... पर में कुसभी केहडू, तुम कुसभी समझ ना पाओगी, भीतर ऐसी हाहाकार है, एसी सोर है बिचार की, तुमको सुनाई भी दे तो सायद कुसभी सार ना मिले ... ये खुदकी तलास तुम्हे किसीसे दूर नही ले जाता, सबकुस पास ही हो जाए, ऐसी खुदकी तलास में खो जाओ, इस जगत के नियम उल्टे है, सबकुस खोकर ही खुदको मिले ऐसी दास्तान तो कम नही है ।।
- जीतू २२/२/२०२०
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